बंजारन हूँ मैं,

युगों-युगों की बंजारन!

लेती जाती हूँ

जनम पर जनम,

कभी इस गाँव,

कभी उस शहर;

कभी इस नदी में अक्स देखती हूँ,

कभी उस नदी की लहरें गिनती हूँ;

कभी मरुभूमि पर तपती हूँ,

कभी समन्दर किनारे विचरती हूँ,

कभी पहाड़ों पर तपस्या करती हूँ…

बंजारन हूँ मैं,

युगों-युगों की बंजारन!

न जाने क्या तलाश है?

न जाने क्या खोज रही हैं मेरी आँखें?

न जाने दिल में क्या तलब है?

न जाने जिगर को क्या आरज़ू है?

न जाने ज़हन में क्या जुस्तजू है?

न जाने क़दमों की क्या ख़्वाहिश है?

न जाने रूह में क्या बेचैनी है?

नहीं जानती यह भी कि कौन हूँ मैं?

बंजारन हूँ मैं,

युगों-युगों की बंजारन!

ए ख़ुदा!

शायद यह तुझसे ही मिलने की आरज़ू है|

पर यह इतनी छोटी सी चाहत

क्यों तड़पाती है मुझे?

क्यों कराती है मुझसे

यह अनजाना सफ़र?

अब तो

मिट जाने दे मेरी हस्ती;

घुल जाने दे मुझे, तुझमें,

कि एक हो जाएँ, मैं और तू!

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1 Comment

सत्येंद्र सिंह · June 21, 2020 at 7:55 am

जड़ विहीन लोग बंजारे ही होते हैं। मिलने की चाह आत्मा की शाश्वत अभीप्सा है। रूह और जिस्म के अंतर्द्वंद्व पर ही विजय नहीं मिल पाती। इस विजय के बाद तू आता है, परंतु तब तक तू अंतर्ध्यान हो जाता है। कबीर यही तो कहते हैं – जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहिं। खोज वही है, अभिव्यक्ति के शब्द बदल गये हैं। साधु

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