जाने क्यों नज़्में लिखती हूँ मैं?
वक़्त की कमी से पाँव थमते नहीं,
कभी इधर, कभी उधर भागती रहती हूँ मैं;
जिस तरह सूरज की तपती किरणों से
दरख्तों के नीचे आराम मिल जाता है,
शायद कुछ ऐसा ही सुकून खोजती हूँ मैं!
शायद इसीलिए नज़्में लिखती हूँ मैं!
जब जिस्म थक जाता है भार से,
तो क़रार रूह से ही मिलता है;
शायद अपनी रूह को रौशनी से भरने के लिए
ख़यालों के महताब खोजती हूँ मैं,
और इसी तलाश में मशगूल रहती हूँ मैं!
शायद इसीलिए नज़्में लिखती हूँ मैं!
यह ज़िंदगी एक सफ़र ही तो है,
जिसमें गुल भी हैं और शूल भी हैं|
जब कभी पाँव में कोई शूल चुभ जाता है,
और पाँव थम जाते हैं,
तो ख़ुद में
एक बार फ़िर उठकर चल पड़न की जुस्तजू
ज़हन में भरने की कोशिश करती हूँ मैं!
शायद इसीलिए नज़्में लिखती हूँ मैं!
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