मेरे ज़हन के भीतर
एक पूरा का पूरा
शहर सोया हुआ है|
एक ऐसा शहर
जिसमें ख़ामोशियाँ
न जाने क्यों, बहुत बोलती हैं|
जिसमें कई ख़्वाबों के पुतले
मर कर भी साँस ले रहे हैं|
जिसमें उम्मीदों की चिल्लर
दिखती तो है, पर बीनी नहीं जाती|
जिसमें ख़्वाहिशों की कटी पतंगें
नयी डोर को तरस रही हैं|
जिसमें तमन्नाओं के सूखे समन्दर
मौजों की आस में इंतज़ार कर रहे हैं…
सुनो,
बारिश क्या हुई,
मेरे ज़हन में भी
कुछ नमी सी हो गयी है…
मैंने सुना है
नमी में कुछ भी खोदना
आसान होता है…
क्यूँ नहीं तुम भी
ले आते एक कुदाल
और खोद देते मेरे ज़हन को
तब तक,
जब तक वो सोता हुआ शहर
जाग न जाए,
और
मेरी ख़ामोशियों को आवाज़ मिल जाए,
मेरे ख़्वाबों के पुतले जीवित हो उठें,
मेरी उम्मीद की चिल्लर को इकठ्ठा कर
उसे गुल्लक में डाल दिया जाए,
मेरी ख़्वाहिशों की पतंगें उड़ने लगें,
मेरी तमन्नाओं के समन्दर बहने लगें…
जब यह शहर
तुम्हारे रूबरू होगा,
तभी तो तुम जानोगे
1 Comment
सत्येंद्र सिंह · June 21, 2020 at 7:45 am
खामोशियों को आवाज़ और ख्वावों के पुतलों को जीवित करना आपकी रचना धर्मिता का अनुकरणीय प्रयास है। बहुत बहुत बधाई।