(ज़िंदगी का अलाव)
अच्छा, ज़रा यह बताओ यशोधरा,
कि जब तुम्हें और तुम्हारे पुत्र को त्यागकर
चला गया था राजकुमार सिद्धार्थ,
किसी ख़ास बोध की खोज में,
और तुम्हें कई अन्य राजकुमारों ने
भेजे थे प्रेम प्रस्ताव और शादी के सन्देश,
तो क्या सोचकर ठुकराया था
तुमने उन प्रस्तावों को?
क्या तुम्हारे
दिल के किसी तंग कोने में
यह विश्वास था
कि गौतम बुद्ध बनने के बावजूद
तुम्हारा सिद्धार्थ लौट आयेगा
और तुम्हें एक बार फिर अपना लेगा?
या तुम नहीं चाहती थीं
कि किसी और का हक हो तुम्हारे पुत्र पर
और दिल में कहीं यह संकोच था
कि न दे सके वो प्यार तुम्हारे पुत्र को
और इसलिए तुमने अपने पुत्र की खातिर
अकेला रहना पसंद किया?
या तुममें हिम्मत ही नहीं थी
समाज के रस्मो रिवाज तोड़ने की
और तुम वही करती रहीं
जो तुम्हारे आसपास
तुम्हारे नाते-रिश्तेदारों ने तुमको सुझाया?
तुम्हारे बारे में
जब भी कुछ पढ़ती हूँ
और सोचती हूँ,
मुझे तो कुछ ऐसा लगता है
कि तुमने अपने अन्दर जला ली थी एक लौ
जो परे थी किसी सहारे के;
तुमने प्यार तो सिर्फ सिद्धार्थ से किया था
और जब वो तुम्हारा होकर भी तुम्हारा हो न सका,
तुम अपनी उसी लौ के सहारे
अपने रास्ते तय करती रहीं,
खोजती रहीं ज़िंदगी के मायने
और बदल दी तुमने
प्यार की परिभाषा!
2 Comments
सत्येंद्र सिंह · June 21, 2020 at 7:36 am
बहुत सुंदर कविता है। मैं स्वयं ऐसा ही सोचता हूं।
Rajat Jain · May 5, 2021 at 1:14 pm
बहुत अच्छी कविता है , इस कविता के सहारे आपने यशोधरा के दृष्टिकोण को समझने का उत्तम प्रयास किया है ।